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भारतीय मीडिया में नही बची है गरिमा........................

क्यूं हम तस्वीरों को ही खबर बनाते जा रहे है? मीडिया इतनी सशक्त हुयी की आज फोटो जर्नलिज्म का युग है।मै ये नही कह रहा फोटो छापना गलत है। कहना ये चाहता हू कि बिना सोचे बिचारे कोई फोटो छापना गलत है।किस फोटो का क्या इम्पैक्ट समाज के उपर क्या पड रहा है?कौन सी फोटो जरूरी है?इन सब बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
पिछले कुछ वर्षो में भारतीय मीडिया ने जो कुछ झेला वो शायद किसी और देश की मीडिया ने नही झेला होगा।खबरों की गरिमा में कमी,पेड न्यूज,मीडिया के लोगों की तमाम अपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता और ना जाने क्या क्या पिछले कुछ सालों में मीडिया की उपलब्धिता रही। भारतीय मीडिया के लोग अपने खबरों का सबसे बडा ऐबीडेंस तस्वीरों को व विजुअल को मानते है।किन तस्वीरों को प्रकाशित करना है,किन विजुअल को ऑनएयर करना है।इसकी समझ मीडिया के काम कर रहें लोगो में शायद नही है या आवश्यकता से अधिक मार्डन हो गयी है भारतीय मीडिया। लाइब रिर्पोटिंग के नाम पर फेक विजुअल आज भारतीए मीडिया की हकीकत हो गयी है। कही शहर में बाढ आ गयी तो यदि उस घटना के विजुअल भी चैनल के पास नही है,तो भी उस खबर को बिना विजुअल के नही प्रसारित करतें।पुराने फुटेज में तोडमरोड कर कहने का मतलब है,पुराने लाइब्रेरी फुटेज को इतना एडिट कर देते है कि कोई पहचान ना पाऐ और इस तरह के विजुअल आनएयर कर दिए जातेे है।सभी चैनल ऐसा कर रहें मै किसी एक चैनल की बात नही कर रहा। ये सभी चैनल अपने समाचार सोत्रो और एपीटीएन,राइटर,आदि की खबरों के अलावा यू टयूब के विजुअल का भी इस्तेमाल कर लेते है।हादसो की रिर्पोटिंग मे अगर विजुअल कम समय के है तो उसे लूप मे लगा कर तरह तरह के विडियो इफेक्ट डाल कर उसे घटना के बराबर भयावह कहने का मतलब लाइब बना कर पेश करते है।खास कर व्लर्ड न्यूज के कार्यकमों में दुनिया की कमोवेस झूठी तस्वीरें टीवी पर देखने को मिलती है। मै कहना ये चाहता हूं क्यूं हम तस्वीरों को ही खबर बनाते जा रहे है? मीडिया इतनी सशक्त हुयी की आज फोटो जर्नलिज्म का युग है।मै ये नही कह रहा फोटो छापना गलत है। कहना ये चाहता हू कि बिना सोचे बिचारे कोई फोटो छापना गलत है।किस फोटो का क्या इम्पैक्ट समाज के उपर क्या पड रहा है?कौन सी फोटो जरूरी है?इन सब बातों का ध्यान रखना जरूरी है।कितने ही अखबारों ने भोपाल गैस कांड की प्रतीकात्मक तस्वीरें छापी थी। कारण वे मरने वाले लोगो का अनादर नही करना चाहते थे।क्या इसी गरिमा का पालन हादसो की रिर्पोटिंग में नही किया जा सकता?किसी मंदिर के भगदड या फिर किसी भीषण दुर्घटना में मरे लोगो के विजुअल या कि किसी आपदा में मरे लोगो कर लाशे दिखा कर हम पत्रकारिता के किस धर्म का पालन कर रहे है?क्या हम लाशों की वीभत्स तस्वीर छापने से ही अपना पेट पाल रहे है। और इनको छाप कर कौन सी खबर के प्रमाण की पुष्टि होती है,जो ऐसे फोटो ना छाप या विजुअल के बिना समाचारों को प्रसारित कर या प्रतीक का इस्तेमाल करके नही होती। समाचारों की हडबडी या बुलेटिन की जिम्मेदारी में हम ये भूल जाते है अपने पत्रकार धर्म की जिम्मेदारियों को।किसी बुलेटिन की कोई खबर आनएयर नही हो पाई या फिर समय से अखबार का पेज नही छूटा इन बातों की टेंशन तो हम रोज ही लेते है।अपने जिम्मेदारियों को जरा सा भी अपना ले तो देश समाज की जो दशा होती जा रही है।उसमे बदलाव धीरे धीरे दिखाई देने लगें।जरा ईमानदारी से सोचे शोकग्रस्त परिवारों,बुरी हालत की लाशांे के विजुअल दिखा कर क्या हम अपने स्वतंत्रता का गलत फायदा नही उठा रहें?या कि हम भी उतने ही क्रूर नही होते जा रहे?क्या हम हादसों,दुर्घनाओं की रिर्पोटिंग मे गरिमामय पंरम्परा का पालन नही कर सकते।अगर नही और यही है आज की पत्रकारिता तो भारतीय मीडिया में नही बची है गरिमा।

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